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जौनपुर:फोन सिर्फ दृष्टि पर ही नही नींद और मानसिक स्तिथि पर भी डालता है प्रभाव : डॉ0 दानिश

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जौनपुर:फोन सिर्फ दृष्टि पर ही नही नींद और मानसिक स्तिथि पर भी डालता है प्रभाव : डॉ0 दानिश

अधिक फोन देखने से बच्चों में होता है चिड़चिड़ापन स्लो होता है शारीरिक विकास।

डिजिटल स्क्रीनिंग स्वास्थ्य के लिए चिंता जनक:-

जौनपुर (उत्तरशक्ति)।खेतासराय नगर के बैंक ऑफ बड़ौदा के निकट रियाज़ आई क्लीनिक के चिकित्सक डॉ0 दानिश ने बुद्धवार को मीडिया कर्मियों से बातचीत चीत के दौरान बताया कि
मोबाइल फोन ने दुनिया को एक छोटे से यंत्र में समेट दिया है। आज हम सूचना, शिक्षा, मनोरंजन और संवाद के तमाम साधन मात्र एक स्क्रीन पर पा सकते हैं। परन्तु इसी स्क्रीन ने धीरे-धीरे हमारे शारीरिक स्वास्थ्य, विशेषकर हमारी आँखों के स्वास्थ्य को संकट में डाल दिया है। आँखें शरीर का सबसे संवेदनशील अंग हैं, और मोबाइल के बढ़ते प्रयोग ने इन्हें प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया है। मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली प्रकाश तरंगें, विशेष रूप से नीली रोशनी (ब्लू लाइट), आँखों की रेटिना पर सीधा असर डालती हैं। रेटिना की कोशिकाएं अत्यधिक प्रकाश से क्षतिग्रस्त हो सकती हैं। लगातार मोबाइल देखने से आँखों में जलन, थकावट, धुंधलापन, लालपन,पानी आना या सूखापन जैसी समस्याएं पैदा होती हैं। इसे डिजिटल आई स्ट्रेन कहा जाता है, जो आज शहरी आबादी में आम हो गया है। जब हम स्क्रीन पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो सामान्य से कम बार पलकें झपकाते हैं। इससे आँखों की नमी कम होती है और सूखेपन की समस्या उत्पन्न होती है। यह स्थिति डिजिटल आई स्ट्रेन को जन्म देती है, जिसके लक्षण हैं – आँखों में खिंचाव, दोहरी दृष्टि, जलन, सिरदर्द और आँखों का लाल होना,चिड़चिड़ापन। यह समस्या विशेष रूप से उन लोगों में देखी जाती है जो घंटों मोबाइल या कंप्यूटर स्क्रीन पर काम करते हैं। मोबाइल फोन, टैबलेट और लैपटॉप से निकलने वाली नीली रोशनी अत्यधिक ऊर्जा युक्त होती है, जो आँखों की रेटिना तक पहुँचती है। यह रेटिना की कोशिकाओं को धीरे-धीरे नुकसान पहुँचाती है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि अत्यधिक ब्लू लाइट के संपर्क से मैक्युलर डीजेनेरेशन की संभावना बढ़ जाती है, जो दृष्टि को स्थायी रूप से कमजोर कर सकता है। बच्चों में मोबाइल का उपयोग शिक्षा के नाम पर तेजी से बढ़ा है।लेकिन इसके परिणामस्वरूप निकट दृष्टि दोष (मायोपिया) की घटनाएँ भी बढ़ी हैं। पहले जो समस्या किशोर अवस्था में होती थी।वह अब कम उम्र के बच्चों में भी देखी जा रही है। मोबाइल स्क्रीन को अत्यधिक पास से देखने की आदत उनके आँखों की मांसपेशियों को प्रभावित करती है। जिससे दूर की वस्तुएँ धुंधली दिखने लगती हैं। वही रात को सोने से पहले मोबाइल का प्रयोग आज एक सामान्य आदत बन चुकी है।पर यह आदत नींद की गुणवत्ता पर बुरा असर डालती है। नीली रोशनी मस्तिष्क में मेलाटोनिन हार्मोन के उत्पादन को रोकती है।जो नींद के लिए आवश्यक है। इससे नींद आने में देर होती है। नींद अधूरी रह जाती है और व्यक्ति अगली सुबह थका हुआ महसूस करता है। यह आँखों के नीचे काले घेरे और सूजन जैसी समस्याओं को भी जन्म देता है। मोबाइल को बहुत नजदीक से लगातार देखने पर आँखों की मांसपेशियों को लगातार समायोजन (accommodation) करना पड़ता है। इससे मांसपेशियाँ थक जाती हैं और कुछ समय बाद ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है। लंबे समय तक यह तनाव आँखों में स्थायी कमजोरी का कारण बन सकता है। जब आँखें थक जाती हैं।तो इसका प्रभाव केवल दृष्टि तक सीमित नहीं रहता। यह व्यक्ति की एकाग्रता, निर्णय लेने की क्षमता और मानसिक स्थिति पर भी प्रभाव डालता है। लगातार थकी आँखें सिरदर्द, चिड़चिड़ापन और बेचैनी का कारण बनती हैं।जिससे काम की उत्पादकता भी प्रभावित होती है। इतना ही नहीं यह लत सामाजिक रिश्तों को प्रभावित करती है।बल्कि आँखों की नियमित कार्यप्रणाली को भी बाधित करती है। कई लोग अब बिना मोबाइल देखे नींद नहीं ले पाते, और सुबह उठते ही पहली नजर स्क्रीन पर जाती है। यह आदत आँखों के लिए हानिकारक है। ऐसे आदतों से बचने के लिए खेतासराय कस्बा रियाज क्लीनिक के नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. दानिश का कहना है कि हर 20 मिनट पर 20 फीट दूर किसी वस्तु को 20 सेकंड तक देखना चाहिए, मोबाइल में ‘नाइट मोड’ या ब्लू लाइट फिल्टर ऑन करें, बार-बार पलकें झपकाना आँखों को तरल बनाए रखने में सहायक होता है, अंधेरे में मोबाइल देखने से आँखों पर ज़्यादा दबाव पड़ता है, दृष्टि की कोई भी समस्या नजर आए तो नेत्र विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए। यह समस्या केवल व्यक्तिगत नहीं है। यह सार्वजनिक स्वास्थ्य का विषय है। स्कूलों, कार्यस्थलों और परिवारों में स्क्रीन टाइम को लेकर जागरूकता फैलाना आवश्यक है। शिक्षा नीति में बच्चों के लिए स्क्रीन टाइम की सीमा तय होनी चाहिए। सरकार और स्वास्थ्य संगठनों को मिलकर डिजिटल स्वास्थ्य के दिशा-निर्देश बनाने चाहिए, ताकि लोगों की दृष्टि सुरक्षित रह सके।निष्कर्षतः कह सकते है कि मोबाइल तकनीक ने जीवन को आसान बनाया है, लेकिन यह सुविधा आँखों की दृष्टि को संकट में डाल रही है। आज जरूरत है संतुलन की तकनीक का समझदारी से उपयोग और स्वास्थ्य का समुचित ध्यान। आँखें केवल देखने का माध्यम नहीं, सोचने, समझने और महसूस करने का जरिया भी हैं। इन्हें बचाना, केवल स्वास्थ्य की नहीं, मानव सभ्यता की भी आवश्यकता है। यदि आज हम सचेत नहीं हुए, तो आने वाली पीढ़ियाँ मोबाइल तो चलाएँगी।पर शायद दृष्टि इतनी स्पष्ट न रहे कि जीवन की सुंदरता को देख सकें,जो चिंता जनक हैं।

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